ग़ज़ल – जाउंगा कहाँ ऐ दिल तुझको छोड़ कर तन्हा

जाउंगा कहाँ ऐ दिल तुझको छोड़ कर तन्हा कैसे मैं करूं बढ़ती उम्र में सफर तन्हा   भीड़ में या मेले में मैं रहा जहाँ भी हूँ  ढूंढती रही खुद को ये मिरी नज़र तन्हा   हम सफर था जो मेरा हमकदम था जो मेरा वो चले गया मुझको आज छोडकर तन्हा   कानाफूसी करते है लोग ऐसे में अक्सर घूमना नहीं अच्छा है इधर … पढ़ना जारी रखें ग़ज़ल – जाउंगा कहाँ ऐ दिल तुझको छोड़ कर तन्हा

कविता- बेटी से माँ तक का सफर

बेफिक्री से फ़िक्र का सफर रोने से खामोश कराने का सफर बेसब्री से तहम्मुल का सफर पहले जो आँचल में छुप जाया करती थी आज किसी को आँचल में छुपा लेती है पहले जो ऊँगली जल जाने से घर सर पर उठा लेती थी आज हाथ जल जाने पर भी खाना बनाया करती है पहले जो छोटी छोटी बातों पर रो जाया करती थी आज … पढ़ना जारी रखें कविता- बेटी से माँ तक का सफर

कविता – रास्ते का सबक मंज़िल का पैगाम होता है

आदमी से बड़ा आदमी का काम होता है जैसे राम से बड़ा राम का नाम होता है शक्ल से खुलता नही वजूद किसी का सूरत का नही ज़माना हुनर का गुलाम होता है काम से ही मिलती है पहचान सभी को खास बन जाये शख्स जो आम होता है रास्ता लंबा पांव छोटे है तो क्या हुआ छोटी छोटी कोशिशों का बड़ा अंजाम होता है … पढ़ना जारी रखें कविता – रास्ते का सबक मंज़िल का पैगाम होता है

किसान पर कविता- दिल्ली का सिंहासन डोल उठेगा

किसान बेटा जब बोल उठेगा जिस दिन किसान का बेटा बोल उठेगा…. दिल्ली का सिंहासन डोल उठेगा…. मिट्टी में मिल जायेंगे तख्तो ताज तुम्हारे… जिस दिन किसान का बेटा भी, किसान एकता बोल उठेगा….!! अभी रो रहा है,वो बात बात पे… अभी सो रहा है ,वो दिल्ली घाट पे.. अभी गुमराह ही रहा है,वो बात बात पे.. पर जिस दिन वो बोल उठेगा…. दिल्ली का … पढ़ना जारी रखें किसान पर कविता- दिल्ली का सिंहासन डोल उठेगा

ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए – अदम गोंडवी

आज के मौजूं पर अदम गोंडवी साहब की कुछ मेरी पसंदीदा ग़ज़लें आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे – अदम गोंडवी हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात … पढ़ना जारी रखें ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए – अदम गोंडवी

ग़ज़ल- मुसव्विर हूं सभी तस्वीर में मैं रंग भरता हूं

हमेशा ज़िन्दगानी में मेरी ऐसा क्यूं नहीं होता जमाने की निगाहों में मैं अच्छा क्यूं नहीं होता उसूलों से मैं सौदा कर के खुद से पूछ लेता हूँ मिरी सांसे तो चलती हैं मै ज़िंदा क्यूं नही होता हरिक को एक पगली बेटा कह कर के बुलाती है मगर उस भीड़ में तब कोई बेटा क्यूं नहीं होता गये गुज़रे ज़माने की कहानी क्यों बताता … पढ़ना जारी रखें ग़ज़ल- मुसव्विर हूं सभी तस्वीर में मैं रंग भरता हूं

कविता – दिल का समंदर

तेरे दिल का समंदर है गहरा बहुत पर डुबाने को मुझको ये काफी नहीं कल फिर तुम तोड़ोगी वादा कोई फिर कहोगी गलती मैंने की माफ़ कर दो मुझे और आगे से गलती फिर होगी नहीं तेरे दिल का समंदर है गहरा बहुत पर डुबाने…. कुछ कहता हूँ मैं तुम सुनो ध्यान से तोड़ा अब फिर से जो तुमने वादा कोई जायेंगे भूल हम भी … पढ़ना जारी रखें कविता – दिल का समंदर

कविता – ये दुनिया आखिरी बार कब इतनी खूबसूरत थी?

ये दुनिया आखिरी बार कब इतनी खूबसूरत थी? जब जेठ की धधकती दुपहरी में भी धरती का अधिकतम तापमान था 34 डिग्री सेलसियस। जब पाँच जून तक दे दी थी मानसून ने केरल के तट पर दस्तक, और अक्टूबर के तीसरे हफ्ते ही पहन लिए थे हमने बुआ के हाथ से बुने हॉफ़ स्वेटर… ये दुनिया आखिरी बार…….. जब सुबह आ जाता था आंगन में … पढ़ना जारी रखें कविता – ये दुनिया आखिरी बार कब इतनी खूबसूरत थी?

कविता – मुझे कागज़ की अब तक नाव तैराना नहीं आता

तुम्हारे सामने मुझको भी शरमाना नहीं आता के जैसे सामने सूरज के परवाना नही आता ये नकली फूल हैं इनको भी मुरझाना नही आता के चौराहे के बुत को जैसे मुस्काना नही आता हिजाबो हुस्न की अब आप क्यों तौहीन करते हो किसी को सादगी में यूँ गज़ब ढाना नहीं आता फकीरों की जमातों में मैं शामिल हो गया हूँ पर मुझे वोटों की खातिर … पढ़ना जारी रखें कविता – मुझे कागज़ की अब तक नाव तैराना नहीं आता

कविता – इश्क के शहर में

मेरी बातें तुम्हें अच्छी लगतीं, ये तो हमको पता ना था तुम हो मेरे हम हैं तुम्हारे, ये कब तुमने हमसे कहा जिस दिन से है जाना मैंने आपकी इन बातों को ना है दिन में चैन कहीं, न है रातों को.. पहली बार जो तुमको देखा, दो झरनों में डूब गए बाँहों से तेरी हुए रूबरू, तो खुद को ही भूल गए जिस दिन … पढ़ना जारी रखें कविता – इश्क के शहर में

कविता – कुछ मुसलमान भी , सीने से लगाने होंगे – “सतीश सक्सेना”

इनके आने के तो कुछ और ही माने होंगे ! जाने मयख़ाने के, कितने ही बहाने होंगे ! हमने पर्वत से ही नाले भी निकलते देखे ! हर जगह तो नहीं , गंगा के मुहाने होंगे ! धन कमाना हो खूब,मीडिया में आ जाएँ  एक राजा के ही बस, ढोल बजाने होंगे !  सोंच में हो मेरे सरकार,तो कह ही डालो आज भी अनकहे कुछ वाण चलाने होंगे ! राज … पढ़ना जारी रखें कविता – कुछ मुसलमान भी , सीने से लगाने होंगे – “सतीश सक्सेना”

कविता – बस स्मृति हैं शेष

अति सुकोमल साँझ- सूर्यातप मधुर; सन्देश-चिरनूतन, विहगगण मुक्त: कोई भ्रांतिपूर्ण प्रकाश असहज भी, सहज भी, शांत अरु उद्भ्रांत… कोई आँख जिसको खोजती थी! पा सका न प्रमाण; युतयुत गान; मेरे प्राण ही को बेधते थे| शांति और प्रकाश, उन्मन वे विमल दृग्द्वय समय की बात पर संस्थित मुझे ही खोजते थे| मैं न था, बस एक उत्कंठा मुझे घेरे खड़ी थी! व्याप्त करती श्वास प्रति … पढ़ना जारी रखें कविता – बस स्मृति हैं शेष

कविता – मुलाकात: खुद की खुद से

मैं एक बात कहना चाहता हूँ। जन्मान्तरों की हमारी यात्रा है। पिछले किसी मोड़ पर कभी न कभी कहीं न कहीं हमारा कोई न कोई रिश्ता जरूर रहा होगा। ये हमारे सामूहिक अचेतन मन की अँधेरी परतों की आवाज थी जिसने हमें आज इस पड़ाव पर एक दूसरे से मिलवा दिया। अस्तित्व में कुछ भी अकारण नहीं होता। सभी चीजें कार्य-कारण सिद्धांत से जुडी हैं। … पढ़ना जारी रखें कविता – मुलाकात: खुद की खुद से

गज़ल – गुज़र गई है मेरी उम्र खुद से लड़ते हुए – “ख़ान”अशफाक़ ख़ान

गुज़र गई है मिरी उम्र खुद से लड़ते हुए मुहब्बतों से भरे वो खतों को पढ़ते हुए धुएं की तरह बिखरता रहा फज़ाओं में के उम्र बीत गई हवा संग उड़ते हुए बिखर गए हैं मिरे ख्वाब सह्र होते ही मैं देखता हूं सभी ख्वाब यार जगते हुए खुदा ए बंद से इतनी दुआ है मेरी बस ज़ुबाँ से कलमा शहादत रवाँ हो मरते हुए … पढ़ना जारी रखें गज़ल – गुज़र गई है मेरी उम्र खुद से लड़ते हुए – “ख़ान”अशफाक़ ख़ान

ग़ज़ल- तू अपनी जान पे तलवार बन के बैठा है अमीर हो के भी नादार बन के बैठा है – “ख़ान”अशफाक़ ख़ान

तू अपनी जान पे तलवार बन के बैठा है अमीर हो के भी नादार बन के बैठा है मेरी अना ने ही मगरूर कर दिया मुझको मेरा वजूद ही दीवार बन के बैठा है मैं तेरे शह्र में अनजान बन के रहता हूँ न जाने कौन है ? दिलदार बन के बैठा है मैं तेज धूप में सर को छुपाने आया था यहाँ तो शम्स … पढ़ना जारी रखें ग़ज़ल- तू अपनी जान पे तलवार बन के बैठा है अमीर हो के भी नादार बन के बैठा है – “ख़ान”अशफाक़ ख़ान

कविता: नील में रंगे सियार, तुम मुझे क्या दोगे ? – सतीश सक्सेना

अगर तुम रहे कुछ दिन भी सरदारी में , बहुत शीघ्र गांधी, सुभाष के गौरव को गौतम बुद्ध की गरिमा कबिरा के दोहे , सर्वधर्म समभाव कलंकित कर दोगे ! कातिल, धूर्त, अंगरक्षक , धनपतियों के नील में रंगे सियार, तुम मुझे क्या दोगे ? दुःशाशन दुर्योधन शकुनि न टिक पाएं ! झूठ की हांडी बारम्बार न चढ़ पाए, बरसों से अक्षुण्ण रहा था, दुनियां … पढ़ना जारी रखें कविता: नील में रंगे सियार, तुम मुझे क्या दोगे ? – सतीश सक्सेना