कानूनी प्रक्रिया में राजनैतिक हस्तक्षेप घातक

उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर जिले में एक बड़ी घटना हो गयी है। वहां स्याना नामक थाने के एक गांव में खेतों और बगीचे में कटी गाय के अवशेष मिलते हैं और उससे लोगों की भावनाएं भड़कती हैं। लोग सड़क जाम करते हैं, और उस जाम को खुलवाने के लिये इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह वहां कुछ पुलिस बल लेकर पहुंचते हैं। भीड़ कुछ सुनती है और कुछ नहीं सुनती है। यह भीड़ का मनोविज्ञान है कि उससे कोई तार्किक बात हो ही नहीं सकती है। वह कुछ सुनने के मूड में नहीं रहती है और उसी भीड़ में अगर कुछ भद्र दिखने वाले लोग अगर बात सुनते भी हैं तो शेष भीड़ उनकी भी नहीं सुनती है। उत्तेजना बढ़ती है और भीड़ अनियंत्रित होकर हिंसक हो जाती है। परिणामस्वरूप, भीड़ पुलिस इंस्पेक्टर पर हमला कर देती है और उस इंस्पेक्टर को घिरा देखकर उसके साथी पुलिसजन वहां से भाग जाते हैं, और इंस्पेक्टर मौके पर मारे जाते हैं। फिर यह खबर देश भर में फैल जाती है और लोगों की अपने अपने तरीके से क्रिया प्रतिक्रिया होने लगती है।

इस घटना की थाने में दो एफआईआर होती है। एक गौकशी से सम्बंधित एफआईआर, जो गोवध निवारण अधिनियम में और दूसरी इंस्पेक्टर सुबोध के हत्या के संबंध में, धारा 302 आईपीसी तथा अन्य दफाओं में होती है। सरगर्मी लखनऊ तक पहुंच जाती है। इंस्पेक्टर सुबोध की हत्या कर्त्तव्य पालन के दौरान हुयी है अतः, उन्हें नियमानुसार जो राजकीय सुविधा, असाधारण पेंशन आदि आर्थिक सहायता अनुमन्य थी वह और कुछ सरकार ने अपनी तरफ से अतिरिक्त सहायता भी दी है। मुक़दमे की विवेचना शुरू हो गयी है। जीतू मलिक नामक, सेना का एक जवान भी पकड़ा गया है जो न्यायिक हिरासत में है। अभी तफ्तीश चल रही है। पुलिस ने ही मुक़दमे में योगेश राज जो बजरंग दल का नेता है को भी इस मुक़दमे में, नामजद किया है।

कहा जाता है यह साज़िश माहौल बिगाड़ने थी। पर जब सुबोध मौके पर पहुंच गए तो गिरोह ने माहौल को और उत्तेजक बनाने हेतु उनपर हमला कर दिया। योजना थी कि भीड़ से घिरते ही पुलिस बौखला कर फायर झोंक देगी जिससे कुछ हताहत होंगे और फिर यह उत्तेजित भीड़ हिंसा पर उतारू हो जाएगी। पर ऐसा नही हुआ। दंगाइयों का एक ही उद्देश्य था कि हिन्दू मुस्लिम पुलिस सब आपस मे गुत्थमगुत्था हो जांय। गाय काट कर उसे पेंड पर लटकाने की हरकत पर स्याना के तहसीलदार का बयान पढें, “गौकस,गाय के काटे गए हिस्सों को छिपाते हैं,लटका के नुमाइश नहीं करते ! ये साजिशन किया गया था !”

सुबोध की हत्या पर न तो कोई संवेदना सत्तारूढ़ दल और उसके संगठन ने व्यक्त की और न ही घटना की विस्तृत जांच के लिये कोई मांग की। ऊपर से वहां के विधायक ने अपने संगठन के सदस्य योगेश राज को ही निर्दोष करार दे दिया। सरकार अपने संगठन के दबाव में आ गयी। उधर लखनऊ में मुख्यमंत्री जी ने कह दिया कि कोई भीड़ हिंसा नहीं हुई है यह तो एक दुर्घटना है।फिर पूरी सरकार और गिरोह गाय से राजनीतिक दूध निकालने में जुट गया।

इस पूरी घटना को निम्न विन्दुओं से देखिये

  • इज़्तिमा की समाप्ति पर गौकशी औए गाय के कटे अवशेषों का प्रदर्शन।
  • भीड़ का पुलिस पर हमला और कायरता प्रदर्शित करते हुये साथी पुलिस कर्मियों का मौके से भाग जाना।
  • सुबोध को भीड़ द्वारा घेर कर मार देना।
  • सुदर्शन टीवी वाले अफवाहबाज़ सुरेश चह्वाण के इज़्तिमा के बारे में भड़काने वाले ट्वीट जानबूझकर कर सोशल मीडिया में फैलाया जाना।

इन सब क्रियाकलापों से न केवल माहौल बिगड़ा बल्कि माहौल बिगाड़ने वालों का लक्ष्य ही यह था कि इज़्तिमा से लौटते मुसलमान लोगों और गौकशी से उत्तेजित हिंदुओं के बीच एक टकराव होगा फिर तो जो होता उसकी कल्पना की जा सकती है।

उपरोक्त तथ्य इसलिए दिए गए हैं जिससे आपको घटना की क्रमबद्ध जानकारी मिल जाय। पर इस लेख का उद्देश्य घटना की जांच और साज़िश की पड़ताल करना नहीं है बल्कि पुलिस इंस्पेक्टर की भीड़हिंसा में हत्या हो जाने के बाद सरकार और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के रवैये और उसका क्या असर पुलिस मनोबल पर पड़ सकता है की समीक्षा करना है।

जब हम पुलिस शब्द का उपयोग करते हैं तो, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आसेतु हिमाचल एक वर्दीधारी का चेहरा सामने आ जाता है। रूप, रंग, भाषा में अलग अलग पर यूनिफार्म, कानून, अधिकार और शक्तियों में एक समान। वर्दी की एकरूपता ही सिपाही से लेकर डीजी तक, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या क्षेत्र के हों, सभी विविधताओं के बीच एक एकता के सूत्र की तरह गुंथी रहती है। एक ही मैदान, एक ही कमांड, एक ही ड्रिल के कारण पुलिस एक इकाई हैं और पुलिस के किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की निंदा तथा प्रशंसा भी उसी एक इकाई को सम्बोधित करते हुए होती है। इंस्पेक्टर सुबोध हों या कॉन्स्टेबल से लेकर पुलिस महानिदेशक तक, उसी एक इकाई के ही अंग हैं। यह एक रेजीमेंटेशन है। यह दुनिया भर की सभी वर्दीधारी बलों का अनिवार्य अंग है। जिस दिन यह रेजीमेंटेशन टूटने लगेगा अनुशासित और प्रशिक्षित यह वर्दीधारी संगठन जिसकी जिम्मेदारी ही है कि वह देश का कानून, विधिसम्मत तरीके से लागू करे, एक अराजक भीड़ या गिरोह बन कर रह जायेगा।

जब यह घटना घट गयी तो लखनऊ में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में सभी वरिष्ठ अधिकारियों की एक मीटिंग हुई। उस मीटिंग में, जैसा कि समाचार माध्यमों से प्रसारित है, सम्भवतः यह निर्णय लिया गया कि, सरकार पहले बुलंदशहर हिंसा के सुबोध हत्याकांड की जांच के पहले,  गोकशी की जांच करेगी। यह खबर सोशल मीडिया में भी है और इसे विस्तार से अखबारों ने छापा भी है। गौकशी के बारे में एक खबर यह भी है कि गाय कुंदन नाम के किसी व्यक्ति ने काटी है। जबकि इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के मुक़दमें में योगेश नामजद मुल्ज़िम भी है। पर अब तक न कुंदन पकड़ा गया है और न ही योगेश राज। कुंदन या गौकशी करने वाले अभियुक्तों के पकड़े जाते ही,  इसारा रहस्य खुल जायेगा कि इस साजिश के पीछे कौन कौन लोग थे।

हो सकता है, इससे सत्तारूढ़ दल असहज हो जाय और इसके दूरगामी राजनैतिक परिणाम भी हो सकते हैं। यह भी संभावना है कि गौकशी करने वाले और इंस्पेक्टर सुबोध पर हमला करने वाले एक ही थैली के चट्टे बट्टे हों। बाद में ये दोनों देर सबेर अदालत में हाज़िर हो जाएंगे। फिर एकाध महीना या कुछ समय जेल रहेंगे हो सकता है सेशन अदालत से इनकी जमानत न हो पर  हाइकोर्ट से तो जमानत हो जाएगी। तफ़्तीश में क्या होगा यह अभी पता नहीं।

एक पुलिस अफसर रहे होने के कारण, सरकार और राजनीतिक नेतृत्व से मुझे कोई गिला नहीं है। गिला है  पुलिस के बड़े अधिकारियों के रवैये से। यह बात अखबारों में छप रही है, सोशल मीडिया पर हर घन्टे अयाँ हो रही है कि पहले गौकशी की जांच होगी फिर सुबोध हत्याकांड की। क्यों ?.क्या गौकशी, मानव हत्या से अधिक महत्वपूर्ण हैं ? क्या भारतीय दंड विधान में मानव हत्या धारा 302 आईपीसी को गौवध निवारण अधिनियम के ऊपर प्राथमिकता दी गयी है ? क्या आईपीसी की प्राथमिकता में एक पशु एक मनुष्य से अधिक महत्व रखता है ? क्या सिर्फ इसलिए कि सुबोध की शहादत, मरी हुई गाय की तुलना में कोई राजनीतिक डिविडेंड नहीं देने जा रही है ? क्या हम राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिये उस भेंड़ की तरह हैं जो ‘दूसरों की ठंड के लिये अपने पीठ पर ऊन की फसल ढोती’ है ? यह सब सवाल मेरे ही नहीं बल्कि देश भर के पुलिसजन के जेहन में उठेंगे।

अगर सुबोध हत्याकांड के मुल्जिमों के लिये कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हुई तो इसका अत्यंत प्रतिकूल असर पुलिस विभाग के अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों के मनोबल, मानसिकता और कार्यशैली पर पड़ेगा। पुलिस एक अनुशासित विभाग है। इसमे अपनी व्यथा, बात और पक्ष रखने के लिये पुलिसजन के पास कोई फोरम नहीं है। अपनी पीड़ा कहने के लिये सैनिक सम्मेलन टाइप जैसे मंच आदि की व्यवस्था ज़रूर है पर वे सामान्य सेवागत समस्याओं के समाधान में कारगर तो होते हैं, पर ऐसी असाधारण परिस्थितियों में वे अप्रासंगिक हो जाते हैं। अनुशासन बात बात पर आड़े आ जाता है और न भी आये तो यह बात जता भी जाती है। अनुशासन का रेड कार्ड या फाउल की व्हिसिल अक्सर हमें सचेत भी करती रहती है। यह बात सही है कि, अनुशासन की सीमा किसी को भी लांघनी नहीं चाहिये। पुलिस विभाग में अपनी पीड़ा, व्यथा और बात कहने के लिये कोई मंच या फोरम इसलिए भी नहीं है कि पुलिस एक ऐसा विभाग है जो आर्म्ड  और प्रशिक्षित है। ट्रेड यूनियन जैसा संगठन पुलिस में संभव भी नहीं है। अगर ऐसा हो गया तो पुलिस के  राजनीतिक और अनुशासन हीन हो जाने का एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाएगा,भी जो तँत्र को एक गिरोह बना कर रख देगा। बड़े अधिकारियों के सेवा संघ हैं। वे भी बहुत सक्रिय नहीं है बल्कि एक प्रकार के औपचारिक गेट टुगेदर की तरह ही है। किसी प्रकार के सेफ्टी वाल्व मेकेनिज़्म के अभाव में  सभी अधीनस्थ अधिकारियों और कर्मचारियों की सारी आशा अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मुखिया डीजीपी से रहती है जो ऐसे कठिन समय मे न केवल उनके साथ खड़े रहें बल्कि खड़े दिखें भी। अब यह वरिष्ठ अधिकारियों की मानसिकता और कार्यशैली पर निर्भर करता है कि वह किन परिस्थितियों में अपने अधीनस्थों के साथ हैं।

पर जो खबरें आ रही हैं उनसे यह साफ लग रहा है कि वे अपने अधीनस्थ की ओर नहीं बल्कि साफ तौर पर नामजद मुल्ज़िम को बचाने में लगे हुए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हो सकता है मेरा आकलन गलत हो, पर मीडिया और संचार माध्यमों से जैसा लग रहा है, वैसा मैं कह रहा हूँ। सुबोध हत्याकांड में नामजद मुल्ज़िम को यह अवसर दिया जा रहा है कि वह पहले अपनी मासूमियत भरे चेहरे से अपनी सफाई सोशल मीडिया पर फैलाये, कुछ हवा बने, अफवाहबाज़ी हो, और लोगों में अभियोग तथा अभियुक्त के प्रति जो धारणा बनी है वह कुंद हो और लोग किसी अन्य मसले में मुब्तिला हो, इसे भुला दे। फिर ये खबरें भी खबरों की आर्काइव में पहुंच जाएंगी।

गोकशी कोई जघन्य अपराध नहीं है पर गाय के साथ लोगों की भावनाओं के जुड़ाव के कारण यह एक गम्भीर अपराध बन जाता है। पुलिस इस मामले को गम्भीरता से लेती है। क्योंकि इससे व्यापक हिंसा और कानून व्यवस्था के भंग होने की संभावना हो जाती है। पर यहां, कानून व्यवस्था पहले ही भंग हो गयी है और मौके पर जो पुलिस अफसर कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने गया था उसकी हत्या हो चुकी है। गौकशी ने अपना दुष्प्रभाव दिखा दिया है। अब इन दो अपराधों में पुलिस अफसर की हत्या का अपराध अधिक महत्वपूर्ण है जिसमे कार्यवाही की जानी चाहिये। अगर मुल्ज़िम नामजद न होते तो उनका पता लगाने और सुबूत जुटाने में समय लगता, पर यहां तो पुलिस ने ही एफआईआर लिखवाया है और पुलिस ने ही नामजदगी की है फिर इतना सन्नाटा क्यों?

अब एक काल्पनिक परिस्थिति से रूबरू हों। अगर यही ह्त्या सुबोध कुमार सिंह पुलिस इंस्पेक्टर के बजाय किसी ऐसे व्यक्ति की हुयी होती जो पुलिस के बजाय किसी ऐसे विभाग का कर्मचारी होता जहां ट्रेड यूनियन या संगठन जैसे मंच होते तो क्या सरकार और पुलिस के बड़े अफसरों का यही रवैय्या होता ? बिल्कुल नहीं। यही अफसर गाय बैल भूल कर मुल्ज़िम को कहीं न कहीं से ढूंढ लाते और वे अपनी वाहवाही के किस्से बखानते। अब तक अभियुक्त के गिरफ्तार न करने के आरोप में कोई न कोई निलंबित हो गया होता। क्यों कि वे संगठन अब तक हड़ताल पर चले जाते । सरकार फिर गाय बैल को भूल पहले मुल्ज़िम के पीछे पड़ जाती। पर आदेश की अवहेलना और हड़ताल आदि पुलिस की संस्कृति में नहीं है। पुलिस विभाग में ऐसा करने की कोई सोच भी नहीं सकता है। करना तो दूर की बात है। और उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिये। पुलिस जब ऐसा नहीं कर सकती तो उसके मुखिया और अफसरों की यह जिम्मेदारी है कि वे ऐसे कठिन समय मे एक बॉस नहीं बल्कि एक अभिभावक की तरह रहें। आज भी पुलिस में बॉस को एक अभिभावक की ही नज़र से मातहत देखते हैं। पर इस मामले में दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। योगेश राज और नामजद मुल्जिमों के बारे में सख्ती से कदम क्यों नहीं उठाया जा रहा है , यह अफसोस की बात है। क्या सिर्फ इसलिए कि वह सत्तारूढ़ दल से जुड़ा है और उसके दल तथा संगठन के लोग यह नहीं चाहते कि वह पकड़ा जाय ? अगर ऐसा है तो यह बेहद दुखद है और शर्मनाक है।

पुलिस सरकार का सर्वाधिक प्रमुख अंग है। सरकार का मुख्य कार्य कि विधि की स्थापना हो, और कानून व्यवस्था बनी रहे, यह दायित्व और कर्तव्य पुलिस का है। पिछले कई दशकों से पुलिस के बारे में यह आम धारणा जनता में बन चुकी है कि पुलिस राजनीतिक आकाओं की चेरी है और इसके कार्य राजनीतिक दलों द्वारा संचालित होते हैं। निश्चित रूप से यह धारणा काफी हद तक सच है पर इस धारणा के सच होने के लिये पुलिस व्यवस्था पर ही दोषारोपण करना पुलिस पर ज्यादती होगी। पुलिस को एक पेशेवर लॉ इंफोर्समेंट एजेंसी के तौर पर विकसित करने और पुलिस बल के आंतरिक प्रशासन के सुधार हेतु सरकार ने कई आयोगों का गठन समय समय पर किया है, और उनकी सिफारिशें भी प्राप्त हुयी हैं। पर उन सिफारिशों पर अमल कम ही हुआ है।

1980 में धर्मवीर जो एक आईसीएस अफसर थे की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी थी। उक्त रिपोर्ट में सुधार हेतु बहुत से विंदु दिये गए थे पर एक महत्वपूर्ण विंदु है राजनीतिक हस्तक्षेप का जो अक्सर चर्चा और निशाने पर रहता है। लंबे समय तक इस कमीशन की रिपोर्ट गृह मंत्रालय के सचिवालय में पड़ी रही। बाद में उत्तर प्रदेश पुलिस और बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक, आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह ने इस कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया की यह याचिका न केवल चर्चित रही बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके आधार पर पुलिस अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग पर राजनीतिक दखलंदाजी कम करनेऔर सनक के आधार पर किये जाने वाले तबादलों पर रोक के लिये पुलिस महानिदेशक, एसपी, और थानाध्यक्षों के कार्यकाल को एक तयशुदा समय सीमा में रखने के निर्देश दिये है। लेकिन 2006 से जारी इन निर्देशों को राज्य सरकारें, न मानने के लिये टरका रही है। सरकारें चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, वे पुलिस पर से अपना शिंकजा हटने नहीं देती हैं। क्योंकि सत्ता का यह एक महत्वपूर्ण अंग है और बिना पुलिस के सत्ता का अहसास भी नहीं हो सकता है।

“लोकतंत्र में पुलिस निर्द्वन्द्व और अनियंत्रित रखी भी नहीं जा सकती है। पुलिस को जनप्रतिनिधियों की बात सुननी चाहिये। ” यह तर्क अक्सर दिया जाता है। लेकिन पुलिस का काम है कानून को कानून के अनुसार, कानूनी तरह से लागू करवाना। अगर जनप्रतिनिधि किसी कानून का उल्लंघन पाए जाने पर उस कानून को पटरी पर लाने के लिए अपनी बात कह रहे हैं तब तो ठीक है पर असल समस्या तब आती है जब पुलिस पर चाहे गलत हो या सही हो, जनप्रतिनिधियों की बात जो वे कहें, जैसा वे कहें मानने के लिये दबाव पड़ता है तब यह राजनीतिक हस्तक्षेप है और सारे विवाद की जड़ भी यही है।

लोगों को एक भ्रम है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल के अधीनस्थ पुलिस बल होता है। पुलिस सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में तो है, पर पुलिस सरकार के प्रोफेशनल और ऑपरेशनल नियंत्रण में नहीं है। अधिकारियों को हटाना और नियुक्त करना यह काम सरकार का तो है पर किसी अपराध की विवेचना, कानून व्यवस्था की किसी विकट स्थिति आदि में क्या और कैसे कार्यवाही पुलिस करेगी यह सरकार नहीं बल्कि कानून तय करता है जिसे संसद या विधानसभा बनाती है न कि सरकार। जब कि सत्तारूढ़ दल के लोग समझते हैं कि उनकी सरकार है तो उनकी ही मर्ज़ी से पुलिस चलेगी। सच तो यह है कि कानून का पालन और उसे लागू करते समय, पुलिस किसी के भी अधीन नहीं है सिवाय उस किताब के जिसके प्राविधान के अंतर्गत पुलिस अपना काम कर रही है। पुलिस का मनोबल और उनकी कार्यदक्षता बनी रहे इसके लिये आवश्यक है कि सरकार और पुलिस के बड़े अफसर यह सुनिश्चित करें कि किसी भी परिस्थिति में पुलिस कानून की पटरी से न उतरे।

उत्तर प्रदेश में यही हो रहा है। पुलिस अफसर की हत्या में नामजद अभियुक्त अगर आज सत्तारूढ़ दल का सदस्य न होता तो सलाखों के पीछे होता। आये दिन जनप्रतिनिधियों द्वारा पुलिस से झगड़ा करने बदतमीजी करने और मारपीट करने की खबरे आती रहती हैं। इनसे न केवल पुलिसजन का मनोबल टूटता है बल्कि पुलिस अनुशासनहीन भी होने लगती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुलिसजन द्वारा भ्रष्टाचार करने, गैर कानूनी काम करने की बहुत सी शिकायतें मिलती हैं और वे सच भी होती हैं, पर पुलिस में किसी भी अन्य विभाग की अपेक्षा दंड का प्रतिशत अधिक है। शिकायतों पर त्वरित दंड और उपलब्धियों पर त्वरित पुरस्कार, किसी भी बल को अनुशासित बनाये रखने का एक मंत्र है। इस मामले में सुबोध कुमार सिंह की हत्या जिन परिस्थितियों में हुयी है, उसमें मुआवजा देकर ही इस घटना की इतिश्री नहीं कर दी जानी चाहिये, बल्कि उनके हत्यारों और उन्हें मौके से कायरों की तरह छोड़ कर भाग जाने वाले पुलिसजन के विरुद्ध कड़ी से कड़ी वैधानिक कार्यवाही करनी चाहिये। अगर विभाग ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया तो इसका विपरीत असर पुलिस के मनोबल और अनुशासन पर पड़ेगा।

© विजय शंकर सिंह
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