मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई 1987 को क्या हुआ था?

मेरठ का हाशिमपुरा नरसंहार, शायद बहुत से लोग इसके बारे में जानते भी न हों पर यह नरसंहार अपने आप में एक वहशी नरसंहार था. जिसमे सीधे सीधे सत्ता का दखल माना जाता है.

22 मई 1987.एक पुलिस वैन आकर इस मुस्लिम इलाके में रुकी. एक के बाद एक नौजवानों और लड़कों को गाडी में भरा गया. तेरह से पचहत्तर साल तक के लोग, जिनको शहर के बाहर नहर पर ले जा कर उतारा गया, उस के बाद एक एक करके गोली मार दी गयी। लाशें नहर में बहा दी गयीं. सिर्फ़ एक, ज़ुल्फ़िक़ार निसार, इन लाशों के बीच दम साधे पड़ा रहा और बच गया. यही चश्मदीद गवाह था जिसने देहली के एम्स में इलाज के बाद, पूरा वाकया बयान किया था. उस ज़माने में टीवी चैनल एक ही था, मीडिया राज्य-नियंत्रित होता था. कांग्रेस राज के दर्जनों, हत्याकांडों की तरह, ये भी भुला दिया गया. दशकों केस चला, अदालत ने भी पुलिस वालों को बरी कर दिया.

वो तो शुक्र है फ़ोटोजर्नालिस्ट प्रवीण जैन का जिन्होने क़त्ल ए आम से पहले कुछ फ़ोटो खैंच लिया, आज वो फ़ोटो ही हमे उस क़त्ल ए आम की याद दिलाता है.

नदीम अख्तर इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं

22 मई 1987 , रमज़ान का महीना, जुमे का दिन, मेरठ का हाशिमपुरा, पी ए सी मुसलमानों को घरों से निकालती है घेराबंदी करके मेन रोड पर खड़े ट्रकों तक लाती है, ट्रक मे भरती है और मुरादनगर नहर पर ले जाती है, एक एक को उतारती है, गोली मारती है और नहर मे फेंकती रहती है, और इस तरह लगभग 50 लोगों को फेंकती है.

कुछ एक दो लोग ज़िंदा भी बच जाते हैं यानी चश्मदीद , केस दर्ज होता है, मुक़दमा चलता है, उन चश्मदीदों के भी बयान होते हैं लेकिन किसी को कोई सज़ा नही, कोई ज़िम्मेदार नही.

यह एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश मे हुआ, जहाँ न्यायालय भी है, मानवाधिकार आयोग भी है और तो और अल्पसंख्यक आयोग भी है, वहां एक सशस्त्र बल के कुछ जवान लगभग 50 लोगों को सिर्फ़ इसलिए मार देते हैं कि वो उस धर्म के नही हैं जिस धर्म को उस सशस्त्र बल के जवान मानते हैं और किसी की कोई ज़िम्मेदारी नही

कभी किसी बुध्दिजीवी से बात करिये दंगो पर वो ” दंगो मे सबका नुक़सान होता है ” कहकर अपनी बात ख़त्म कर देगा,  मै कहता हूँ आज़ादी के बाद से आज तक होने वाले दंगो का विश्लेषण क्यों नही करते ? कुल कितने लोग मरे और किस समुदाय के कितने थे ?

पुलिस की गोली से कितने मरे और उसमे किस समुदाय के कितने थे ? दंगो के बाद कितनी गिरफ़्तारियां हुईं और किस समुदाय से कितनी ? कितनों को सज़ा हुई और किस समुदाय से कितनी ? कितने सम्पत्ति जली या बर्बाद हुई और किस समुदाय की कितनी ? पता चल जायेगा दंगो मे किसका नुक़सान होता है?

Image may contain: one or more people, people standing, people walking, crowd and outdoor

काशिफ सिद्दीक़ी हाशिमपुरा नरसंहार पर अपनी फ़ेसबुक पोस्ट पर लिखते हैं

22 मई 1987 मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले में 19 पीएसी के जवान प्लाटून कमांडर सुरेंद्र पाल सिंह के साथ तलाशी अभियान के नाम पर घुसते हैं फिर लगभग 40-50 नौजवान मुस्लिम लड़को को एक ट्रक में भर कर ले जाते हैं रात के वक़्त पॉइंट ब्लेंक से गोली मार के कुछ लाशो को गंग नहर मुरादनगर में फेंक दिया जाता है और कुछ लाशो को हिंडन नदी में फेंक दिया जाता है. जिसमे 42 मुस्लिम नौजवान मर जाते हैं जबकि 5 गोली लगने पर भी बच जाते हैं.

पीएसी के जवान इस लिए बुलाए गए थे क्योंकि उस वक़्त के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की सरकार ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का निर्देश दिया था जिसके बाद देश मे कई जगह दंगे हुए. मेरठ शहर में भी दंगे हुए थे जिसे कंट्रोल करने के लिए पीएसी को बुलाया गया था. उस वक़्त केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी थे और राज्य में काँग्रेस के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे.

ये सारी कहानी महात्मा गाँधी और मौलाना आज़ाद के भारत की ही है ना कि हिटलर के नाज़ी जर्मनी की. उस वक़्त के नेताओ का आरोप है कि तत्कालीन मिनिस्टर ऑफ स्टेट होम पी.चिदम्बरम ने सारा खेल रचा था मुसलमानो को सबक सिखाने के लिए जैसे 1984 में सिखों को सिखाया गया था. राजीव गाँधी को डर था कि अगर इन्क्वायरी बैठाई गयी तो चिदम्बरम का नाम आ जाएगा जिससे सरकार की किरकिरी होगी.

1988 आते ही लगभग 4 साल बाद ये मुद्दा इंटरनेशनल मुद्दा बन चुका था. 1996 में लगभग 8 साल बाद पहली चार्जशीट कोर्ट में फ़ाइल हुई और फिर 2006 में मतलब 19 साल बाद पहली बार चश्मदीद की गवाही हुई.

स्टेट स्पोंसर्ड जेनोसाइड में शामिल लोगों को बिना सरकार के चाहे कौन बचा सकता है. 2015 में यानी घटना के 28 साल बाद सारे अभियुक्त तीस हजारी कोर्ट द्वारा बाइज़्ज़त बरी कर दिए जा चुके हैं क्योंकि उनके खिलाफ जाँच एजेंसी सबूत नही जुटा पाई. उस वक़्त की काँग्रेस पार्टी जिसकी उत्तरप्रदेश में सरकार थी ने एक जान की कीमत मात्र 20 हज़ार लगाई थी मुआवजा के नाम पर. फिर सुप्रीम कोर्ट में (पीपुलस यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट) ने मुआवजा बढ़ाने और इन्क्वायरी की मांग की थी जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने 20 हज़ार और बढ़ाने को बोला था सरकार को.

1994 में क्राइम ब्रांच सेंट्रल इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट ने राज्य सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी जो आजतक पब्लिकली नही लाया गया. इस घटना के 12 साल बाद तक हाशिमपुरा मोहल्ले में कोई शादी नही हुई थी. जो लोग कल राजीव गाँधी को श्रीदांजलि दे रहे थे क्या आज हाशिमपुरा के बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों पर 2 लाइन लिख सकते हैं जो सरकार द्वारा प्रायोजित जेनोसाइड में बर्बरता से मारे गए. मेरी तरफ से उन सभी लोगो को नम आँखों और भारी दिल से श्रीदांजलि और उनके घर वालो के सब्र को सलाम.

शोएब गाज़ी इस घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं

22 मई 1987 हाशिमपुरा,मेरठ मे पुलिस की वैन आकर रुकती है और बंदूक की नोक पर एक एक घर से मुस्लिम नौजवानो को निकाल कर वैन मे ठूंसा जाता है फिर एक नहर पर उतार कर हर एक को गोली मार दी जाती है, पुलिस वापस अपनी बटालियन को लौट गई ट्रक को रात ग्यारह बजे धो कर रख गिया गया.

चालीस लाशो मे एक दो लोग ज़िंदा दबे मिले जिसमे एक ज़ुल्फ़िकार निसार भी था उसने सारा वाक्या अपने बयान के तहत पंजीबंद्ध कराया उस वक्त मीडीया इतना व्यापक नही था, मामला अदालत मे लटका रहा सत्ताईस साल बाद तीस हज़ारी कोर्ट ने सोलह  आरोपी पुलिस वालो को सबूतों के आभाव मे बरी कर दिया जिनमे की तीन की मौत मामले की सुनवाई के दौरान हो गई थी, आज भी सवाल और हालात वही है जो तीस साल पहले थे जो लोग ये कहते हैं आज शासन प्रशासन उनका है तो तीस पहले किसका शासन प्रशासन था.

सरकार मे वही सेक्युलर कांग्रेसी थे ना जिसे आप अपना हितैषी कहते हो, ऐसे कई मामले जो दफ़्न हो चुके है और कई आज भी अदालतों मे धूल खा रहै है क्या गुजरात दंगो के आरोपियो पर कांग्रैस केंद्र मे सत्ता पाकर एक्शन नही ले सकती थी,क्या 1992 के दंगो के बाद कभी सेक्युलर दल सत्ता मे नही आए,यहां एक मुजरिम को सिर्फ इसलिए फांसी पर लटका दिया गया कि उसकी गाड़ी वारदात मे इस्तेमाल हुई थी और इससे ज़्यादा उसका क़सूर ये रहा कि वो मुसलमान था.

जबकी मक्का मस्जिद और मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी आतंकवादी इक़बालिया बयान के बाद भी बाइज़्ज़त बरी हो गए जेल मे रहते हुए मुख्यमंत्री तक उनसे मिलने जा रहे थे,ये शासन प्रशासन ना कभी आपका था और ना कभी होगा आपको गोलियां भी खानी पडेंगी और सेक्युलरवाद के जनाज़े को भी ढोना होगा.

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