सफाई की बड़ी समस्या है और इसमें जाति एक बड़ा कारण है कि फलानी जाति वाला ही सफाई करेगा परन्तु यह बड़ा पेचीदा मामला है. इन दिनों बैंगलोर में हूँ और कल जब एक संस्था के शौचालय में गया तो एक लिस्ट देखी जिसमे कार्यालय के सभी पुरुष कर्मियों के नाम लिखे हुए थे और हर दिन उनमे से किसी न किसी की जिम्मेदारी थी कि वे सफाई करेंगे.
पुरुष और महिलाओं के लिए बनें पृथक पृथक शौचालयों में यह काम सभी मिलकर करते है अर्थात यहाँ सफाई के लिए कोई नही आता. गौर करने वाली बात यह है कि यह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था का देश कार्यालय है मतलब Country office और देश की निदेशक भी अपनी बारी आने पर शौचालय साफ़ करती है ऐसा माह में चार या पांच बार हरेक को सफाई करनी पडती है. अच्छा लगा कि यहाँ कोई स्वीपर नही है और कार्यालय का स्टाफ ही सफाई का काम करता है, जिसकी भी जिम्मेदारी होती है वह दफ्तर में घुसते ही शौचालय में जाता है और सफाई का काम पूरा करता है.
यह एक विकल्प है जो हम अगर अपने घर या कार्यालय में अपना लें .वैसे मेरे घर मे कोई सफाई कर्मी नही आता, हम लोग खुद करते है सफाई का काम। गाँवों में सामुदायिक शोचालय भी गाँव के लोग जिम्मेदारी से सफाई का काम कर लें तो यह मुश्किल प्रक्रिया सरल हो सकती है और धीरे धीरे जाति सफाई और इससे जुड़े दंश समाप्त हो सकते है. स्कूल कॉलेज या अस्पतालों में यह व्यवस्था स्टाफ के पारस्परिक सहयोग और श्रमदान से हल हो सकती है बशर्ते दिमागी जाले साफ़ हो लोगों के.
सिर्फ दिक्कत यह है कि अगर यह हो गया तो लाखों लोगों का रोजगार जाएगा और फिर मत दुहाई देना जाति और रोजगार की और अन्य बला बला बला. बगैर ज्ञान बांटे और फ़ालतू का अम्बेडकरी ज्ञान, दलित, आरक्षण और जाति प्रथा का इतिहास, ब्राहमणों को गाली गलौज करें हुए आप एक बार पहले खुद करके देखें और फिर यहाँ कमेन्ट करेंज्ञानी और दिमागी रूप से संकीर्ण लोग यहाँ रायता ना बिखेरे, बेहतर होगा कि अपने दिमाग की पहले सफाई कर लें.