तमिलनाडू के किसान पिछले 40 दिन से अपनी मांगों को लेकर जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे हैं। कभी ये नंगे होकर अपना विरोध जता रहे हैं, तो कभी अपने सिर के आधे बाल कटाकर सत्ता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हैं, कभी मानव खोपड़ियों की माला गले में डालकर प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों का दावा है कि ये मानव खोपड़ियां उन साथी किसानों की है, जिन्होंने कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या कर ली है। कभी वे मुंह में चूहा दबा लेते हैं, तो कभी सांप खाते हुए विरोध करते हैं। 22 अप्रैल को इन किसानों ने स्वमूत्र सेवन करके अपना रोष प्रकट किया, लेकिन सिवाय सोशल मीडिया के कहीं हलचल नहीं है। मुख्यधारा का कहे जाने वाले मीडिया ने भी खबर को लगभग नजरअंदाज किया। मीडिया अभी कहां मसरूफ है, यह देश देख रहा है। ‘लोक कल्याण मार्ग’ से कुछ मीटर दूर सत्ता के कानों में न किसानों की आवाज पहुंच रही है और न ही आंखें कुछ देख पा रही हैं। अगर सुन और देख पा रही हैं, तो फिलहाल सत्ता में बैठे लोगों को शायद उनकी तरफ देखने में कोई ‘फायदा’ नजर नहीं आ रहा है। सवाल यह है कि क्या तमिलनाडु के किसान, किसान नहीं हैं? कुछ लोगों का कहना है कि ये किसान ‘नौटंकी’ कर रहे हैं। ऐसा कहने वाले कौन हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मान लिया कि नौटंकी कर रहे हैं। तो क्या महज नौटंकी करने के लिए सैकड़ों किसान हजारों मील दूर से आए हैं? कुछ तो वजह होगी, जो ये किसान ‘नौटंकी’ करने ही सही, आए तो हैं? इन्हें कोई शौक नहीं है तपती गर्मी में भूखे प्यासे सड़क पर पड़े रहना। अगर किसानों की व्यथा नहीं सुनी जा रही तो इसलिए कि उन्होंने विरोध प्रकट करने का गांधीवादी तरीका चुना है। अगर इन्होंने रेल की पटरियां उखाड़ी होतीं, रास्ता जाम किया होता, सड़कों पर निकलकर तोड़ फोड़ की होती तो मीडिया भी दिखाता और सत्ता के कानों पर जूं भी शायद रेंग ही जाती। लेकिन ठहरिए, शायद ऐसा होना सरकार के लिए फायदे की बात होती। वह और उसके समर्थक फौरन प्रदर्शनकारियों को नक्सली ठहरा देते।

लेकिन अगर गांधीवादी तरीके से किया गया उनका विरोध कामयाब नहीं होता है और वे हथियार उठा लेते हैं, तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? यूं तो तमिलनाडु की गिनती भारत के सबसे विकसित प्रदेशों में होती है, लेकिन सूखे ने किसानों की कमर तोड़ दी है। सूखे से प्रभावित किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों की मांगों में सूखा राहत फंड, बुजुर्ग किसानों के लिए पेंशन, फसल और कृषि कर्ज की छूट, फसलों के लिए बेहतर कीमत और उनके खेतों को सिंचाई के लिए नदियों को जोड़ना शामिल है। उनकी मांगों में कोई मांग ऐसी नहीं, जिसे पूरा करने के लिए तमिलनाडृ की सरकार विचार नहीं कर सकती। केंद्र सरकार ने तो जैसे मान लिया है कि किसानों की समस्या हमारी नहीं, बल्कि राज्य सरकार की है। मान लिया कि प्रदेश सरकार की समस्या है, तो फिर केंद्र सरकार क्यों दिन रात किसानों की चिंता में घुली जाती है? क्या ऐसा करना उसका महज दिखावा है? प्रधानमंत्री बात करते हैं कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी। क्या इसी तरह किसानों की आमदनी दोगुनी की जाएगी? तमिलनाडु में 40 प्रतिशत से अधिक लोग खेती पर निर्भर हैं। 80 फीसदी किसान छोटे किसान हैं। पिछले साल यहां 170 मिलीमीटर बारिश हुई, जबकि औसतन 437 मिलीमीटर बारिश होती है। कई जिले ऐसे हैं, जहां 60 फीसदी कम बारिश हुई है। राज्य के कई इलाकों में पानी का संकट है। खबरें बताती हैं कि राज्य के सहकारिता बैंकों से लिए गए 5,780 करोड़ के कर्ज वहां की सरकार ने माफ कर दिए हैं। लेकिन किसान इससे आगे की बात करते हैं। उनका कहना है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों से लिया गया कर्ज भी माफ होना चाहिए। वैसे भी सभी जानते हैं कि किसानों की कर्ज माफी के नाम पर सरकारें क्या क्या खेल खेलती रही हैं। किसान यह भी चाहते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा कावेरी प्रबंधन बोर्ड का गठन हो, जिससे पानी की समस्या सुलझाई जा सके और किसानों को राहत मिले। गत 13 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु में किसानों की आत्महत्या को लेकर राज्य सरकार को फटकार भी लगाई थी। कोर्ट ने माना था कि किसानों की हालत वाकई बेहद चिंताजनक है। इसके बावजूद भी अगर सरकारें सोई हुई हैं या जागते हुए सोने का बहाना कर रही हैं, तो उन्हें जगाने के लिए किसानों को वह सब करना पड़ रहा है, जिसकी कभी आजाद भारत में कल्पना भी नहीं की थी। ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु में हमेशा से ही किसान परेशान रहा है। वे खेती से इतना कमा लेते थे कि परिवार पल जाता था। लेकिन पिछले एक दशक में कम बरसात, फसलों की वाजिब कीमत न मिलना, बैंकों का किसानों को कर्ज देने में आनाकानी के चलते साहूकारों के जाल में फंसने से उन्हें बरबादी की ओर धकेल दिया है। अगर भारत का मुख्यधारा का मीडिया तमिलानडु के किसानों के प्रदर्शन को नजरअंदाज कर रहा है, तो विदेशी मीडिया मौजूद है, सोशल मीडिया पूरी शिद्दत से किसानों के समर्थन में आगे आ गया है। ऐसे में जब प्रदर्शनकारी किसानों की तस्वीरें दुनियाभर में देखी जा रही हैं, तो विदेशों में हमारी कैसी छवि बन रही होगी? क्या सत्ताधीशों ने कभी इस पर ध्यान दिया है? कहने को हम दुनिया की सबसे तेज बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था हैं, पूरी दुनिया हमारी ओर देख रही है। दृसरी ओर देश का किसान नग्न होकर अपना पेशाब पीने को मजबूर है। विकास और विनाश के बीच ये कैसा विरोधाभास है? सवाल यह भी है कि उत्तर भारत का किसान क्यों दक्षिण भारत के किसानों के प्रति इतना उदासीन है? क्या दोनों जगहों के किसानों की समस्याएं जुदा हैं? नहीं ऐसा नहीं है। उत्तर भारत के किसान भी उन्हीं मांगों के लिए आंदोलन करते रहे हैं, जो दक्षिण भारतीय किसानों की हैं। दिल्ली से हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब ज्यादा दूर नहीं है। क्यों यहां के किसान अपना समर्थन देने जंतर मंतर नहीं जा रहे हैं? क्या राजनीतिक आस्थाएं बाधक बन रही हैं? या फिर उनकी संस्कृति, उनका रहन सहन, उनकी भाषा आड़े आती है? अगर भाषा की बात है कि तो सही है कि उत्तर भारत के लोग उनकी बातें समझने में असमर्थ होंगे, लेकिन उनके प्रदर्शन करने का तरीका क्या यह बताने के लिए काफी नहीं है कि वे किस पीड़ा से गुजर रहे हैं? उनकी पीड़ा को कोई जन्मजात बहरा भी समझ सकता है। मत मांगिए उनकी मांगें, लेकिन सत्ता इतना करम तो कर ही सकती है कि उनसे जाकर परेशानी पूछे। सच्चा नहीं तो झूठा आश्वासन तो दे, जिसके लिए सत्ताएं जानी जाती रही हैं। ऋतुरात वसंत ने एक कविता लिखी है, ‘मैं किसान हूं/ सूखी दरारें चेहरा मेरा/ तेज आंधी से पसरा हुआ/ओलों से हूं लहूलुहान मैं/ खलिहान में मैं सड़ता हुआ/ मैं किसान हूं हिंद का/ अन्नदाता के नाम से ठगा गया/ सियासी चेकों में/ सिफरें तलाशता हुआ/ मैं किसान हूं/ मरता हुआ।’